इतिहास खुद को बहुत अजीब तरीके से दोहराता है, पूरे मणिपुर में फैले सांप्रदायिक दंगों को देखकर यह साफ हो गया है. दूसरे दंगों की तरह जो देश के अलग–अलग हिस्सों में समय-समय पर भड़कते रहते हैं, उससे अलग मणिपुर राज्य (Manipur) ने समय के साथ इन दंगों के लिए संस्थागत इको सिस्टम तैयार कर लिया है और इसे एक्टिव बनाए रखा है. भारत के प्रख्यात राजनीतिक विज्ञानी पॉल ब्रास इसे ‘संस्थागत दंगा प्रणाली’ बताते हैं.
हालांकि, इनमें एक बारीक फर्क है. भारत के दूसरे हिस्सों से उलट, मणिपुर में मौजूदा दंगे धार्मिक संघर्षों से नहीं भड़के हैं. यह राज्य के अति आक्रामक एकीकरणवादी प्रयासों और बहुसंख्यक मैतेई समुदाय की मानसिकता वाले समूह में आदिवासियों को मिलाने और अनुच्छेद 371C के तहत मिले अंतर-राज्य संवैधानिक प्रावधानों को भंग करने के कारण हुए हैं. 371C प्रावधान आदिवासियों को भूमि अधिकार और पहचान की रक्षा का अधिकार देता है, और इसे भंग किए जाने के कारण ही दंगा भड़का है.
अब जरा इस सदंर्भ को समझते हैं. साल 1835 में ब्रिटिश राज ने पहली संस्थागत व्यवस्था बनाई थी. यह मणिपुर के दक्षिणी भाग के अंदर ‘क्रूर’ आदिवासी समूहों की तरफ से लगातार छापे से बेपटरी हुए पहाड़-घाटी संबंधों को रेगुलेट करने के इरादे से बनाया गया था. एक बात तो यह है कि अंग्रेजों के समय के अभिलेखों (archives) को ठीक से देखने से पता चलता है कि ये छापे आदिवासियों ने घाटी के मैतेई राजाओं और उनके क्षेत्र में घुसपैठ के खिलाफ डाले थे. दूसरी बात यह है कि यह हिस्सा न तो अंग्रेजों के पूर्ण प्रभावी नियंत्रण में कभी रहा और ना ही इसकी सीमा का स्पष्ट सीमांकन किया गया था क्योंकि मणिपुर की सीमा मैतेई राजाओं के राजनीतिक भाग्य के उतारचढ़ाव पर निर्भर थी.