आंकड़ों के मुताबिक उत्तराखंड के कुल क्षेत्रफल का अधिकांश हिस्सा वन और बंजर भूमि (63.41%) के तहत आता है। जबकि कृषि योग्य भूमि सिर्फ 14 प्रतिशत है। ऐसे में पहाड़ के लोग इसे लेकर बहुत चिंतित हैं।
पर्वतीय राज्य उत्तराखंड में काफी समय से एक सख्त भू-कानून की मांग चल रही है, इसे लेकर कई बार आंदोलन भी हुए। इस कानून के समर्थक मौजूदा सरकार पर लगातार दबाव भी बना रहे हैं कि वह जल्द से जल्द राज्य को इस संबंध में एक कानून बनाकर दें।
दरअसल पहाड़ के लोग इस बात को लेकर चिंतित हैं कि उनकी जमीन को बाहरी लोगों द्वारा लगातार खरीदी जा रही है, ऐसे में उन्हें ये डर सता रहा है कि कहीं वह अपने ही राज्य में बेघर होकर न रह जाएं। आपको बता दें कि इस समय कोई भी व्यक्ति उत्तराखंड में 250 वर्गमीटर जमीन खरीद सकता है।
हालांकि भू-कानून के समर्थक चाहते हैं कि राज्य के मूल निवासियों की परिभाषा वर्ष 1950 के हिसाब से तय हो और मूल निवासियों को सभी सार्वजनिक चीजों में 90 प्रतिशत हिस्सेदारी दी जाए। अगर किसी को जमीन खरीदनी है तो उसे सिर्फ 200 वर्ग मीटर जमीन खरीदनी की इजाजत दी जाए।
ग्रामीण क्षेत्र में जमीन खरीदने बेचने पर पूरी तरह प्रतिबंध लगे।
व्यापार के लिए जमीन को 10 साल की लीज पर ही दिया जाए। इसमें भी आधी हिस्सेदारी स्थानीय लोगों की हो और रोजगार में भी 90 प्रतिशत स्थानीय लोगों को प्राथमिकता दी जाए।
आपको बता दें कि एक आंकड़े के मुताबिक उत्तराखंड के कुल क्षेत्रफल का अधिकांश क्षेत्र वन और बंजर भूमि (63.41%) के तहत आता है। जबकि कृषि योग्य भूमि सिर्फ 14 प्रतिशत है. ऐसे में पहाड़ के निवासी बहुत चिंतित हैं.
उत्तराखंड और भू-कानून का इतिहास
साल 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड एक अलग राज्य बना था। जिसके बाद उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार कानून 1950 में साल 2004 में संशोधन किया गया था।
इसके बाद उत्तराखंड में वह लोग भी जमीन खरीदने लगे जिनके पास 2003 से पहले उत्तराखंड में कोई जमीन नहीं थी। हालांकि इसमें एक शर्त थी कि इसमें जिलाधिकारी की अनुमति लेनी होगी और जमीन सिर्फ कृषि संबंधी कार्य के लिए खरीदी जाएगी। वहीं एनडी तिवारी ने उत्तराखंड के सीएम रहते 2003 में भू कानून बनाया और जमीन खरीद की एक सीमा भी निर्धारित की थी।
यह सीमा गैर-उत्तराखंडियों के लिए थी, बाद में जमीन की खरीद को और सीमित किया गया। यह मामला फिर शांत था लेकिन 2017 में उत्तराखंड के सीएम त्रिवेंद सिंह रावत ने भूमि खरीद से जुड़ी सभी सीमाओं को खत्म कर दिया। जिसके बाद उन्हें अपनी कुर्सी गंवानी भी पड़ी। लेकिन उसके बाद से राज्य सरकार पर लगातार दबाव है कि वह राज्य में भूमि कानून को सख्त करे, बावजूद इसके अभी तक किसी भी सरकार ने इसे एक कानून के रूप में लागू नहीं किया।
सरकार क्या कर रही है?
धामी सरकार ने भू कानून के लिए 2021 में एक कमेटी बनाई थी। इस कमेटी ने सिफारिश की थी कि हिमाचल में भूमि से जुड़े कानून हैं उसके कुछ प्रावधान उत्तराखंड में भी लागू हों।
क्या कहता है कि हिमाचल का कानून?
हिमाचल प्रदेश टेनेंसी और भूमि सुधार कानून 1972 के सेक्शन 118 के अनुसार कोई भी गैर किसान हिमाचल में खेतीहर जमीन नहीं खरीद सकता है। हालांकि मिल्कियत से जुड़े मामलों में कुछ छूट है। हिमाचल में जो क्षेत्र नगर निगम, नोटिफाइड एरिया या कैंट के दायरे में आता है तो वहां जमीन खरीदी जा सकती है।
लेकिन इसके बाहर जमीन खरीदने के नियम हैं। जिसके लिए सरकार की अनुमति चाहिए। ऐसा नहीं है कि हिमाचल में रेसिडेंशियल प्रॉपर्टी खरीदी नहीं जा सकती है। अगर प्रॉपर्टी 500 वर्ग मीटर तक है तो खरीदी जा सकती है। हालांकि एक शर्त है कि खरीदार के पास हिमाचल के नगर निगम क्षेत्र में कोई प्लॉट न हो।
This post is written by Abhijeet kumar yadav